पत्रकारिता का आईना (चकाचाैंध रोशनी का सच)
हम #पत्रकार भी औपचारिक रूप से मजदूर ही हैं। अंतर इतना ही है कि एक #मजदूर की दिहाड़ी 300 रूपये से शुरू होती है, जबकि #पत्रकार की 50-100 #रुपये से. आज की #पत्रकारिता पहले जैसी नही रही। आजादी के पहले पत्रकारिता देशभक्ति थी. उस समय के पत्रकार कलम से लिखते उसकी 10 कॉपियाँ बनायीं जाती और गांव की पंचायत में उसे पढ़ कर सुना दिया जाता था. इससे गांव के सभी लोगों को देश के हालात का पता चल जाता था.
आज यह #profession_with_passion है. शुरुआत में ही सिखाया जाता है कि हमे पैसे के पीछे नहीँ पैशन के पीछे भागना है। इसलिए नवोदित पत्रकार फ्री में, 100 रुपये में या फिर अपना पैसा लगाकर भी पत्रकार कहलाना पसंद करते हैं. यह #लत ऐसी है कि आप अपने घर-बार माँ-बाप को भूल जाते हैं. कई बार पेट की भूख भी.
मुंबई-दिल्ली जैसे महानगरों में मैंने पत्रकारों को 12-15 रुपये के वडा_पांव और #छोले-कुल्चे भी काम चलाते देखा है, क्योंकि #रोटी #चावल खाने से उनके #घरवाले_भूखे रह जायेंगे. कई तो ऐसे भी पत्रकार हैं जो दो रोटी के लिए अपनी प्रतिभा को भी बेचते हैं. मसलन मीडिया हाउस में #चाचा_भतीजावाद और ऊपर के #ओह्देवालों का #महिला_प्रेम उन्हें संस्थान का नौकर भी नहीँ बनने देता. मजबूरन वे किसी #एडिटर_की_प्रेमिका (इंटर्न या ट्रेनी) के लिए कॉपी लिखा करते हैं. उसके बदले या तो एडिटर खुद या ज्यादा मेहरबानी हुई तो #प्रेमिका के हाथों दिहाड़ी दिलवा देते हैं. वैसे एडिटर उस #अनौपचारिक_पत्रकार से #प्रभावित तो बहुत होते हैं. उसे नौकरी पक्की कराने का #प्रलोभन भी देते हैं, पर नौकरी पर इसलिए नहीँ रखते कि औपचारिक पत्रकार होते ही कही वह उनके गर्लफ्रेंड की नौकरी न खा जाये. अख़बारों में यह प्रचलन विगत कुछ दिनों में बढ़ा है, पर चैनलों में इसके उदाहरण आसानी से और हर छोटे-बड़े मीडिया हाउस में मिल जायेंगे.
अब अगर #औपचारिक_पत्रकारिता की बागडोर संभलनेवाले पत्रकारों की बात करें, तो एक तरफ जहाँ किसी भी प्राइवेट फर्म में 300 रुपये से न्यूनतम दिहाड़ी शुरू होती है, वहीँ मीडिया में 100 रुपये में भी आपको अच्छे टिकाऊ पत्रकार मिल जायेंगे. न उनमें पत्रकारिता की क्षमता कम होगी, न #जोश_ओ_जूनून में. फर्क इतना ही होगा कि उसका हाथ पकड़नेवाला कोई चाचा-भैया उस मीडिया हाउस या किसी अन्य में मीडिया हाउस में नहीं होगा...
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