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Thursday, July 28, 2011

आखिर कब तक जलाएं शहीदों के मजारों पर दिए

देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई एक बार फिर आतंक के साये में शहमी हुई है. कागज पर 21 मौतें और 131 घायल, ये नंबर कुछ ऐसे प्रतीत होते है जैसे भगवान को चढ़ावा चढ़ाया जा रहा हो. चढ़ावा तो हमने चढ़ाया पर भगवान को नहीं शैतान को. वह भी पैसों की नहीं इंसानों के. उन रिश्तों के जिसके टूटने के बाद कोई आनाथ कहलाएगा तो कोई बेवा. किसी का साथी मारा तो किसी का हम-दम.

 ठीक 31 महीने पहले 26/११ को जब इन मनुष्य रूपी शैतानो का तांडव हुआ था तब इससे ज्यादा लोगों की आहुति चढ़ी थी. सरकार ने उन हमलों के बाद सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करने का आश्वासन दिया था. पर वास्तविकता से सभी वाकिफ है.
हर हमले में सैकड़ों जानो की आहुति, जेहन में डर, घर में भी और बाहर भी. सुबह पति या बेटा घर से निकला तो शाम को सही सलामत वापस आने तक बेचैन घुटती जिंदगी. हर चरमपंथी हमलों के बाद सिर्फ और सिर्फ आश्वासन देती सरकार और फिर से मौत का नया तांडव. यह है विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का अभिमान.
जबकि एक नजर वर्ष 9/11/2001 में न्यूयॉर्क में हुए हमले पर डाले तो हमले के बाद वहाँ की सुरक्षा इतनी चुस्त दुरुस्त कर दी गई है कि आज तक किसी परिंदे ने पर नहीं मारा और हर चरमपंथी हमले को नाकाम कर दिया गया. 
जबकि हमारे यहाँ एक मात्र जिन्दा पकड़ा गया आतंकी अजमल कसाब आज भी अतिथि की तरह इस ससुराल से उस ससुराल (जेल) घूम रहा है और उसकी खातिरदारी के खर्च का वहन आम जनता को करना पड़ रहा है. वहीँ अमरिका का उदाहरण लें तो उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की तरह ही आतंक का देवता माने जाने वाले ओसामा को भी उसके सर में हीं गोली मारी. उतना ही नहीं उसने सारे अफगानिस्तान और ईराक की हुलिया बिगाड़ दिया.
बेशक इसमें भी हमारे गांधीवादी विचारधारा वाले लोग अपने आप पर गर्व महसूस करें. पर उसका क्या जिसने अपनों को खो दिया. क्या उसके लिए भी हम गाँधी जी की ही नीति अपनाएंगे? किसी ने हमारे एक अपने की जान ली तो हम उसे दुसरे गाल की तरह दूसरा भी न्योछावर कर दे?

आंकड़े बताते हैं कि पिछले 20 बरसों में 13 हमले सिर्फ मुंबई में हो चुके हैं. आख़िर कब तक हम हर हमले में अपनों को मरते देखेंगे और उनके शहीदी की गाथा गाते हुए " आखिर कब जलाएंगे शईदों के मजारों पर दिए"    


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